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Tuesday, July 3, 2012

KYA JAANE KAB KHA SE CHURAI MERI GAJHAL

क्या जाने कब कहाँ से चुराई मेरी ग़ज़ल
उस शोख ने मुझी को सुनाई मेरी ग़ज़ल

पूछा जो मैंने उस से के है कौन खुश -नसीब
आँखों से मुस्कुरा के लगाई मेरी ग़ज़ल

एक -एक लफ्ज़ बन के उड़ा था धुंआ -धुंआ
उस ने जो गुनगुना के सुनाई मेरी ग़ज़ल

हर एक शख्स मेरी ग़ज़ल गुनगुनाएं हैं
... राही ’ तेरी जुबां पे ना आई मेरी ग़ज़ल

vo tanha kyu hai

कोई ये कैसे बताये की वो तनहा क्यों हैं 
वो जो अपना था वही और किसी का क्यों हैं 
यही दुनिया है तो फिर ऎसी ये दुनिया क्यों हैं 
यही होता हैं तो आखिर यही होता क्यों हैं 

एक ज़रा हाथ बढ़ा , दे तो पकडले दामन 
उसके सिने में समा जाए हमारी धड़कन 
इतनी कुर्बत हैं तो फिर फासला इतना क्यों है 
[कुर्बत=nearness] 

... दिल -ए -बरबाद से निकला नहीं अब तक कोई 
एक लूटे घर पे दिया करता हैं दस्तक कोई 
आस जो टूट गयी फिर से बंधाता क्यों हैं 

तुम मसर्रत का कहो या इसे गम का रिश्ता 
कहते हैं प्यार का रिश्ता हैं जनम का रिश्ता 
हैं जनम का जो ये रिश्ता तो बदलता क्यों हैं 

[मसर्रत=happiness]