Tuesday, July 10, 2012

Ab to Mjahab koi aisa banaya jaye

अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए।
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।
जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए।
आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी
...कोई बतलाए कहाँ जाके नहाया जाए।
प्यार का ख़ून हुआ क्यों ये समझने के लिए
हर अँधेरे को उजाले में बुलाया जाए।
मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए।
जिस्म दो होके भी दिल एक हों अपने ऐसे
मेरा आँसु तेरी पलकों से उठाया जाए।
गीत उन्मन है, ग़ज़ल चुप है, रूबाई है दुखी
ऐसे माहौल में ‘नीरज’ को बुलाया जाए।

Hansta Chehra Gulab Ho jaye

हँसता चेहरा गुलाब हो जाये
तू मेरी ही किताब हो जाये
छु के तेरे हसीं होठो को
सदा पानी शराब हो जाये
उम्र भर का खुमार मिल जाये
पलकों से जो आदाब हो जाये
छोड़ दी मैंने सोच कर दुनिया
साथ तेरा जनाब हो जाये
तू मेरी ही किताब हो जाये
हँसता चेहरा गुलाब हो जाये

Hum hi nahi Dunia se khafa aur bhi hai

अहल -ए -दिल और भी हैं, अहल -ए -वफ़ा और भी हैं
एक हम ही नहीं दुनिया से खफा...और भी हैं
[अहल -ए -दिल = dil vaale;]

क्या हुआ गर मेरे यारों की ज़बानें चुप हैं
मेरे शाहिद मेरे यारों के सिवा और भी हैं
[शाहिद = one who bears witness]

हम पे ही ख़त्म नहीं मसलक -ए -शोरीदासरी
चाक -ए -दिल और भी है चाक -ए -काबा और भी हैं
... [मसलक -ए -शोरीदासरी = rebellious ways; काबा = long gown]

सर सलामत है तो क्या संग -ए -मालामत की कमी
जान बाकी है तो पैकान -ए -क़ज़ा और भी हैं
[संग -ए -मालामत= stones of accusations/reproach]
[पैकान = arrow; क़ज़ा = death]

मुंसिफ-ए -शहर की वहादात पे न हर्फ़ आ जाए
लोग कहते हैं के अरबाब -ए -जफा और भी हैं
[मुंसिफ = judge; वहादात = oneness, unity]
 

Kabhi Kabhi Mere Dil mai Khayal Aata hai

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है ...

की ज़िंदगी तेरी जुल्फों की नर्म छाओं में
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये तीरगी जो मेरी जीस्त का मुक़द्दर है
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी

अजब ना था की मैं बेगाना -ए -आलम हो कर
तेरे जमाल की रानाईयों में खोया रहता
तेरा गुदाज़ बदन तेरी नीम्बार आँखें
...
इन्हीं हसीं फसानों में माहो रहता
पुकारतीं मुझे जब तल्खियां ज़माने की
तेरे लबों से हलावत के घूँट पी लेता
हयात चीखती फिरती बरहनासर , और मैं
घनेरी जुल्फों के साए में छुप के जी लेता

मगर ये हो ना सका और अब ये आलम है
की तू नहीं , तेरा गम , तेरी जुस्तजू भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे
इसे किसी के सहारे की आरजू भी नहीं

ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी गुज़र्गाहों से
मुहीब साए मेरी सिम्त बढ़ाते आते हैं
हयात -ओ -मौत के पुरहौल खाराजारों से

ना कोई जादा , ना मंजिल,ना रोशनी का सुराग
भटक रही है खालाओं में ज़िंदगी मेरी
इन्हीं ख्यालों में रह जाऊँगा कभी खो कर
मैं जानता हूँ मेरी हमनफस मगर यूं ही

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है ... 

Ranjish hi sahi

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ ।

 रंजिश=enmity

पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ ।

मरासिम=agreements/relationships,
रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया=customs and traditions of the society

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
... तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ ।

कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मुहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ ।

  पिन्दार=pride

एक उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिरिया से भी महरूम
ऐ राहत-ए-जाँ मुझ को रुलाने के लिए आ ।
 
लज़्ज़त-ए-गिरिया=taste of sadness/tears,
महरूम=devoid of, राहत-ए-जाँ=peace of life

अब तक दिल-ए-ख़ुश’फ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें
ये आख़िरी शम्में भी बुझाने के लिए आ ।

 दिल-ए-ख़ुश’फ़हम=optimistic heart, शम्में=candles

Piya Basanti Re

पिया बसंती रे
काहे सताए आजा
जाने क्या जादू किया
प्यार की धुन छेड़े जिया
काहे सताए आजा

बादल ने अंगड़ाई ली जो कभी, लहराया धरती का आँचल
ये पत्ता-पत्ता, ये बूटा-बूटा, छेड़े है कैसी ये हलचल
मनवा ये डोले, जाने क्या बोले
मानेगा ना मेरा जिया
...
तेरे है हम तेरे पिया
काहे सताए आजा

पलकों के सिरहाने बैठे, ख्वाब वही जो आने वाले
दिल की गिरहा-गिरहा खोले, मन में प्यार जगाने वाले
सतरंगी सपने बोले रे
काहे सताए आजा


 ---अखिलेश शर्मा

Tuesday, July 3, 2012

KYA JAANE KAB KHA SE CHURAI MERI GAJHAL

क्या जाने कब कहाँ से चुराई मेरी ग़ज़ल
उस शोख ने मुझी को सुनाई मेरी ग़ज़ल

पूछा जो मैंने उस से के है कौन खुश -नसीब
आँखों से मुस्कुरा के लगाई मेरी ग़ज़ल

एक -एक लफ्ज़ बन के उड़ा था धुंआ -धुंआ
उस ने जो गुनगुना के सुनाई मेरी ग़ज़ल

हर एक शख्स मेरी ग़ज़ल गुनगुनाएं हैं
... राही ’ तेरी जुबां पे ना आई मेरी ग़ज़ल

AB TUM AAGOSH A TASSVUR

अब तुम आगोश -ए -तसव्वुर में भी आया न करो
मुझ से बिखरे हुए गेसू नहीं देखे जाते
सुर्ख आँखों की क़सम कांपती पलकों की क़सम
थर -थराते हुए आंसू नहीं देखे जाते

[आगोश -ए -तसव्वुर =in the grasp/reach of dreams/imagination]

अब तुम आगोश -ए -तसव्वुर में भी आया न करो
छूट जाने दो जो दामन -ए -वफ़ा छूट गया
क्यूँ ये लगजीदा ख़रामी ये पशेमान नज़री
तुम ने तोड़ा नहीं रिश्ता -ए -दिल टूट गया

[लगजीदा ख़रामी =hesitant walk; पशेमान नज़री=penitent gaze]

अब तुम आगोश -ए -तसव्वुर में भी आया न करो
मेरी आहों से ये रुखसार न कुमला जाएँ
ढूँदती होगी तुम्हें रस में नहाई हुई रात
जाओ कलियाँ न कहीं सेज की मुरझा जाएँ

[रुखसार=cheek]

अब तुम आगोश -ए -तसव्वुर में भी आया न करो
मैं इस उजड़े हुए पहलू में बिठा लूँ ना कहीं
लब- ए - शीरीं का नमक आरिज़ -ए -नमकीन की मिठास
अपने तरसे हुए होंठों में चुरा लूँ न कहीं

[लब- ए - शीरीं =sweet lips;आरिज़ -ए -नमकीन =salty cheeks] 
बस इक झिझक है यही हाल -ए -दिल सुनाने में 
की तेरा ज़िक्र भी आयेगा इस फ़साने में 

[झिझक=hesitation;ज़िक्र=mention; फ़साने =tale] 

बरस पड़ी थी जो रुख से नकाब उठाने में 
वो चांदनी है अभी तक मेरे गरीब -खाने में 

इसी में इश्क की किस्मत बदल भी सकती थी 
जो वक़्त बीत गया मुझ को आज़माने में 
...
ये कह के टूट पडा शाख -ए -गुल से आखिरी फूल 
अब और देर है कितनी बहार आने में  

आँख को जाम लिखो

आँख को जाम लिखो
ज़ुल्फ़ को बरसात लिखो
जिस से नाराज़ हो
उस शख्स की हर बात लिखो
जिस से मिलकर भी न मिलने की कसक बाकी है
उसी अनजान शहंशाह की मुलाक़ात लिखो
जिस्म मस्जिद की तरह आँखें नमाज़ों जैसी
जब गुनाहों में इबादत थी
वो दिन रात लिखो
इस कहानी का तो अंजाम वही है
...जो था
तुम जो चाहो तो मोहब्बत की शुरुआत लिखो
जब भी देखो उसे अपनी नज़र से देखो
कोई कुछ भी कहे तुम अपने खयालात लिखो
--Nida Fazli